सुना है आज कल नीले फूल और मुसाफिर के किस्से सुनाते हो तुम, तुम्हारी हँसी के ठहाको से सारे गलियारे और रोशनदान भर जाते थे हमेशा मिठाई के एक टुकड़े से बात शुरू होती और गुड के डिब्बे के खाली होने पे ख़त्म पान की गिल्लौरी खाते हीं “इधर आओ बिटिया बताये”, बोल मुस्कारते जब तुम्हारी ठंडी त्वचा को आखरी बार सहलाया था तो, थोड़ी सी हँसी खुरच के रखने की कोशिश की थी सफ़ेद बताशो के साथ भरी दोपहर में दिखे थे मलमल के कुरते में झूमते आये और गले लगा के बोला अब जाने दो बिटिया वही पहाड़,झरना,पुरानी दिल्ली की शाम और पान की गिल्लौरी में मिलते है
ज़िन्दगी का घना कोहरा छट जाता है जब आती हो तुम, अपनी धूप सी साड़ी मैं छाव लिए कंगन का खनकना और पायल का छनकना ये सब तो आम बातें है, तुम आती हो तो, थिरकती है यह हवा,सोख लेते है फूल तुम्हारी खुशुबू, हिरन की नाभी में छिपी कस्तूरी सी बिखरती हो हर ओर,खुद से बेखबर
आज सखी चली गयी ! अक्सर गर्मी की छुट्टी में हम लोग मोतिहारी (बिहार का एक गाँव) जाते, मौसी माँ बिना किसी शिकन, हर सुबह- शाम मेरे लिए अपने चकले - बेलन पे गोल चाँद सी चाशनी में लिपटी रोटियाँ बनाती। मौसी माँ के दिन की शुरुआत चूल्हा जलाने से होती, उनके पूस के घर से हर सुबह धुआँ निकलता, बिलकुल जैसे किसी पेंटिंग में हो। मौसी धीरे धीरे चूल्हा फूँकती, चाय चढ़ा अपनी टास आवाज़ में पुकारती “ ऐ सखी लोगन आवा हेने, अब बोले के कैसे कैसे का का भईल”(ऐ सखी इधर आओ, अब बताओ कैसे कैसे, क्या क्या हुआ )। मौसी हम तीनो बहनो को और हम मौसी को सखी बुलाते। उनकी हँसी और आवाज़ दोनो हमेशा बुलंद थे। मौसा जी का गुज़रना मुझे धुंधला सा याद है, वो सफ़ेद कुर्ता पहन, पान खाते और अपने कंधे पे बिठा कर गाते “हाथी घोड़ा पालकी जय कनहिया लाल की”। मौसी अपनी सारी उम्र मौसा के पेन्शन पे चली, पर उस पूस के घर में भी वो मुझे हंसती हुई और बेफ़िक्र जीती याद है। उनके हाथ का आलू चॉप , चटनी, आलू परवल और गोभी की सब्ज़ी खा कर सब उँगलिया चाटते । मौसी ने तीन बेटों को अकेले बड़ा किया, पापा और माँ ने हमेशा ...
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