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Showing posts from September, 2012

चुप

वक्त रेत की तरह चुपचाप बिना किसी कलरव के फिसल रहा था मेरी उगलियों के गहो से, इतना खामोश था  वो की झींगुर की आवाज़ भी गुम गई उसके सन्नाटे में, कब्र के ऊपर उगे घास की तरह चुप, किसी धधकती हुई चिता की राख की तरह चुप, शेर की मा न्द की तरह चुप, जन्म  के बाद प्राण की तरह चुप, ना जाने किस सांझ के बिना चुप, किसी  औघड   के ड र की तरह चुप, किसी के पदचाप के बिना चुप , ठिठुरता

शब्द

किताबो के संसार ने उलझा दिया है शब्दों को नोच , खरोच अल्फाजो को बिखेर दिया है सबको आज़ान की आवाज़ के साथ आजाद हुए थे शब्द ढेर सारे भाषण में ढुलमुला रहे थे शब्द कही तवे पर रोटियों से सेके जा रहे थे शब्द कहीं उस रोटी के संग निगले जा रहे शब्द भूख की ऐठन में पनप रहे थे  शब्द शाम मेरी कश्ती संग बह गए शब्द

बारिश के बाद

मेरी सीढियों पे कल की बारिश के बाद अलसाये पत्ते बिखरे थे, तुम शाम की गंध से मेरे भीतर अलसाये अजगर से लिपटे रहते हो, कटे नाखूनों से, घटते चाँद से तुम ओझल हो रहे हो, बातो के टुकडो की चुभन मुट्ठी में समेटे, खामोश, उस झील के किनारे खड़े जहाँ आखों की पुतलियो सी काली रात में कापते घास बनते है मछलियों का भोजन, और मछ्लीयाँ, उस भेडिया का जो निष्ठुरता का परिचय है

आवाज़

मैंने काफी आवाजों को मुट्ठी मैं क़ैद कर रखा है, फिसलते है गिरहो से आवाज़ कई टुकड़े लोगो के झुरमुट में जा छुपते  सूरज के साथ उगते सुर्ख लाल, मेरी भ्रिकुटियों के बीच आ सिमटते 

भ्रमण

काठ के चर्कुठ बक्से मे बंद  ले जा रहे थे मेरा शरीर, आत्मा भ्रमण पर निकली, सोच ने  हठ किया साथ जाने का, समझाया तो, मुह फुला, कोने मे मुट्ठी सी सिमट गयी. स्वार्थी हो गयी हूँ मैं, तू चली गयी तो मरे हुए जानवर के बदबू सा होगा मेरा आस्तित्व
एक चहकती हुई गौरयाई के कदमो से ख्वाहीश ने मन मैं घोसला बना लिया , कल शाम से,,, जाने भाप बन कर उड़ जायेगा या, हाथ नम कर साथ रहेगा.