शक्करपारे की महक से घर भर रहा था ये हर साल तुम्हारे वापस लौटने की आहट देता तुम आते तो समुन्द्र में नमक सा घुलता मेरा मन धुप में इन्द्रधनुष सी अचानक दिखती थी मेरी हँसी तुम्हारे होने की नक्काशी मेरे नब्ज़ में महसूस होती आज फिर महक, आहट, घुलना, हँसी, नक्काशी साथ है पर, मेरी काया के सावलेपन में, सिर्फ तुम्हारी परछाई बाकी है
सुना है आज कल नीले फूल और मुसाफिर के किस्से सुनाते हो तुम, तुम्हारी हँसी के ठहाको से सारे गलियारे और रोशनदान भर जाते थे हमेशा मिठाई के एक टुकड़े से बात शुरू होती और गुड के डिब्बे के खाली होने पे ख़त्म पान की गिल्लौरी खाते हीं “इधर आओ बिटिया बताये”, बोल मुस्कारते जब तुम्हारी ठंडी त्वचा को आखरी बार सहलाया था तो, थोड़ी सी हँसी खुरच के रखने की कोशिश की थी सफ़ेद बताशो के साथ भरी दोपहर में दिखे थे मलमल के कुरते में झूमते आये और गले लगा के बोला अब जाने दो बिटिया वही पहाड़,झरना,पुरानी दिल्ली की शाम और पान की गिल्लौरी में मिलते है
कभी कभी शाम के वक़्त जब कई लोग दफ़्तर से लौटते हैं, जब सब्जी वाली की टोकरी में धनिये के पत्ते की सिर्फ गंध रह जाती है, जब कई आशिको के ख्वाब सड़को पे गश्त लगाते हैं जब किसी बच्चे की मुस्कुराहट गर्म हो कर चनकती है, ठीक उसी वक़्त शाम की गुनगुनाहट लिए आते हैं पूर्वज
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